सच कहा था किसी ने कि तन्हाई में जीना सीख लो,
मोहब्बत जितनी भी सच्ची हो साथ छोड़ ही जाती है।
वक्त से उधार मांगी
किस्तें चुका रहा हूं,
शायद इस लिए मैं
अकेला नज़र आ रहा हूं।
कितनी अजीब है
इस शहर की तन्हाई भी,
हजारों लोग हैं मगर
कोई उस जैसा नही है।
अब ये मेरा अकेलापन,
साथ मेरे उम्र भर है...
ना किसी को पाने की जिद है, ना किसी को खोने का डर है...
न साथ है किसी का
न सहारा है कोई,
न हम हैं किसी के
न हमारा है कोई।
मुझको मेरे अकेलेपन से अब
शिकायत नही है मैं पत्थर हूं मुझे खुद से भी मुहब्बत नही है।
चुभते हुए ख्वाबों से कह दो
अब आया न करें,
हम तन्हा तसल्ली से रहते हैं
बेकार उलझाया न करें।
इंतज़ार की आरजू अब खो गई है,
खामोशियों की आदत सी हो गई है, ना शिकवा रहा ना शिकायत किसी से, बस एक मोहब्बत है, जो इन तन्हाइयों से हो गई है।